- यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता
- साप्यन्यं इच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः ।
- अस्मत्कृते च परिशुष्यति काचिद् अन्या
- धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च ॥
(अर्थ - मैं जिसका सतत चिन्तन करता हूँ वह (पिंगला) मेरे प्रति उदासीन
है। वह (पिंगला) भी जिसको चाहती है वह (अश्वपाल) तो कोई दूसरी ही स्त्री
(राजनर्तकी) में आसक्त है। वह (राजनर्तकी) मेरे प्रति स्नेहभाव रखती है। उस
(पिंगला) को धिक्कार है ! उस (अश्वपाल) को धिक्कार है ! उस (राजनर्तकी) को
धिक्कार है ! उस को धिक्कार है और मुझे भी धिक्कार है !)
- भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भभयं
- मौने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जरायाभयम् ।
- शास्त्रे वादिभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं
- सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम् ।। (- वैराग्यशतकम् ३१ )
( अर्थ - भोग करने पर रोग का भय, उच्च कुल मे जन्म होने पर बदनामी का
भय, अधिक धन होने पर राजा का भय, मौन रहने पर दैन्य का भय, बलशाली होने पर
शत्रुओं का भय, रूपवान होने पर वृद्धावस्था का भय, शास्त्र मे पारङ्गत होने
पर वाद-विवाद का भय, गुणी होने पर दुर्जनों का भय, अच्छा शरीर होने पर यम
का भय रहता है। इस संसार मे सभी वस्तुएँ भय उत्पन्न करने वालीं हैं। केवल
वैराग्य से ही लोगों को अभय प्राप्त हो सकता है।)
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